Monday 22 November 2021

इतिहास से होना है रूबरू तो उत्तर प्रदेश के जनपद पीलीभीत के इस मंदिर की करें यात्रा।प्रीति तिवारी प्रदेश कोडिनेटर / जिला ब्यूरो पीलीभीत / एंकर MINERVA NEWS LIVE NETWORK

इतिहास से होना है रूबरू तो उत्तर प्रदेश के जनपद पीलीभीत के इस मंदिर की करें यात्रा।

प्रीति तिवारी प्रदेश कोडिनेटर / जिला ब्यूरो पीलीभीत / एंकर MINERVA NEWS LIVE NETWORK

प्राचानी मूर्तियों और मंदिरों में रुचि है तो पीलीभीत जिले में बीसलपुर तहसील के गांव इलाबांस देवल की यात्रा कर सकते हैं। यहां स्थापित प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण विक्रम सम्वत 1049 में क्षेत्र के मंडलाधिपति लल्ला और उनकी पत्नी लक्ष्मी ने किया था। मंदिर में स्थापित 10वीं शताब्दि के वाराह देव की मूर्ति प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। इसका जिक्र अंग्रेज लेखक जेम्स प्रिन्सेप की किताब में भी है।

इलाबांस देवल 10वीं शताब्दि के भारत का आईना है। लोधी-राजपूतों की आस्था का बड़ा केन्द्र रहे इस क्षेत्र में कभी 52 विशाल टीले थे। अब इनमें से महज एक ही टीला बचा है। यहां आज भी खेतों और टीलों में देवी-देवताओं की मूर्तियां मिलने का सिलसिला जारी है।
वाराह देव की मूर्ति वनदेवी के रूप में पूजी जाती है यहां

इलाबांस में भगवान शिव और माता पार्वती के दो मंदिर हैं। लोधी-राजपूत परिवारों से जुड़े लोग महादेव को अपना कुलदेवता और मां पार्वती को कुलदेवी मानते हैं। इस मंदिर में प्रमुख मूर्ति भगवान विष्णु के वाराह रूप है। लेकिन वर्तमान में इस मूर्ति को वनदेवी मानकर पूजा की जाती है। मूर्ति को तेल और सिंदूर से पोत दिया गया है। इसके कारण मूर्ति के पत्थर का लगातार क्षरण हो रहा है। इतना ही नहीं मूर्ति के ठीक सामने दीवार पर एक पत्थर लगा है जिसमें दसवीं शताब्दि के इतिहास को उकेरा गया है। रखरखाव के आभाव में पत्थर का लिखित दस्तावेज अब बदहाल हो चुका है। अंग्रेज लेखक जेम्स प्रिन्सेप की किताब में प्रकाशित पत्थर की ये तस्वीर बहुत अच्छी हालत में है।

खेतों में मिलती हैं प्राचीन मूर्तियां
इलाबांस में खेतों में जहां तहां प्राचीन मूर्तियां आज भी मिल जाती हैं। खेतों के गड्ढों से झांकती ऐतिहासिक ईंटे अपनी दास्तान खुद बयां करती हैं। गांव में एक युवक के घर भगवान गणेश की खंडित मूर्ति रखी है। उसे खेत में जुताई के दौरान ये मूर्ति कई टुकड़ों में मिली थी।

1829 में इतिहासकार एसएच बुल्डर्सन ने सबसे पहले बताया

इलाबांस देवल के बारे में सबसे पहले 1829 में अंग्रेज इतिहासकार एसएच बुल्डर्सन ने लिखा था। इसके बाद 1837 में जेम्स प्रिन्सेप, 1871 में सर अलेक्जेंडर कनिंघम और 1892 में ब्यूहलर ने मंदिर के बारे में लिखा। अंग्रेजों के समय में इस पर खूब काम हुआ मगर आजादी के बाद प्रदेश और देश की सरकार ने ऐतिहासिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण इलाबांस की चिंता नहीं की। रुहेलखंड विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. कमला राम बिंद के अनुसार मंदिर में जो अभिलेख मिले हैं उनमें राजपूत शासकों की वंशावली और राजनीतिक गतिविधियों का उल्लेख है। मंदिर और घरों का निर्माण पक्की ईंटों से किया गया है।

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