Thursday, 30 July 2020

मंदिर मस्जिद के बीच लड़ने बालो ये मेरी नई रचना पढलो

मंदिर मस्जिद के बीच लड़ने बालो ये मेरी नई रचना पढलो


काशी में उगते सूरज की 

किरणें काबा तक जाती हैंं।


मथुरा से चलकर मन्द पवन , 

बेख़ौफ़ मदीना आती है।।


हिन्दू -मुस्लिम जपने वालो 

क्या इतना मुझे बताओगे?


काबा तक़ जाती किरणों कॊ , 

क्या हथकड़ियाँ पहनाओगे?


मन्दिर -मस्जि़द रटने वालो 

ये भी समझाते चलो मुझे,


बेख़ौफ़ हवा के पैरों में , 

क्या बेड़ी तुम पहनाओगे।।


इठलाते फिरते झरनों कॊ 

किस मज़हब का बतलाओगे?


इतराते फिरते भंवरों कॊ , 

तुम भाषा कौन सिखाओगे?


ठंडी -ठंडी सी पवनों कॊ 

गोरी -गोरी सी सुबहों कॊ,


मन्दिर में खींच बुलाओगे 

या मस्जि़द में ले जाओगे।।


उगते सूरज की लाली कॊ , 

खिलते सुमनों कॊ, माली कॊ,


वेदों की ऋचा सुनाओगे या 

कलमा घोंट पिलाओगे?


फारस की खाड़ी से लहरें 

कोयम्बटूर तक आती हैंं।


श्री रामेश्वर के चरण चूम 

वापस फ़ारस तक जाती हैंं।।


मस्जि़द की ऊंची मीनारें , 

मन्दिर के ऊंचे स्वर्ण -शिखर।


दोनों पुकारते हैंं जिसको , 

रहमान वही, वो ही रघुवर।।


जिस पारब्रह्म परमेश्वर की 

वेदों में संचित वाणी है।


इंजील -क़ुरान - पुराणों में , 

उसकी ही प्रेम कहानी है।।


वो ही मुरली की तानों में , 

उसके ही गीत अज़ानों में।


वो ही कबीर की वाणी में , 

वो मीरा में, रसखानों में।।


तुमने विष - बेलें बोयी हैंं , 

जहरीली फसल उगायी है।


बागों के फूल उजाड़े हैंं , 

शाखाएं, काट गिरायी हैंं।।


हर ओर धुआं काला - काला

हर ओर हवा जहरीली है।


हर होंठ उदासी से बोझिल , 

हर आँख ग़मों से गीली है।।


दहशत ने डेरा डाला है , 

वहशत ने धावा बोला है।।


जो घातक जहर सफ़ाई से 

तुमने रग - रग में घोला है।


मैं उत्कर्ष उसी जहर कॊ मथ - मथ 

कर अमृत कॊ खोज निकालूँगा।।


जन -मानस के मन -मन्दिर कॊ 

इस अमृत से भर डालूँगा।।


इस देश की मिट्टी में जन्मे 

इसमें ही आख़िर मिलना है।


इसमें दीपक सा जलना है , 

इसमें ही फूल सा खिलना है।।


हर रंग - नस्ल का फूल खिले , 

महके हर कण - कण भारत का।।


हर बचपन -यौवन मुस्काये 

हर होंठ हंसे इस भारत का।।


      उत्कर्ष शुक्ला

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